Amidha Ayurveda

28/10/25

Single drug (Herbal & Mineral)

अध्याय २: एकल द्रव्य प्रयोग (भल्लातक, गंधक, गैरिक) - भैषज्यकल्पना नोट्स | BAMS Notes

अध्याय २: एकल द्रव्य प्रयोग (भल्लातक, गंधक, गैरिक)

३. भल्लातक (Bhallataka - Semecarpus anacardium)

भल्लातक, जिसे 'अग्निमुख' (अग्नि के समान तीक्ष्ण) और 'अरुष्कर' (फोड़े उत्पन्न करने वाला) भी कहते हैं, आयुर्वेद की एक अत्यंत शक्तिशाली परन्तु 'विषोपविष' (Semi-poisonous) वर्ग की औषधि है। इसका प्रयोग अत्यंत सावधानीपूर्वक, **केवल शोधन (Purification) के बाद** और योग्य चिकित्सक की देखरेख में ही किया जाना चाहिए।

⚠️ **अत्यंत महत्वपूर्ण चेतावनी** ⚠️

अशुद्ध भल्लातक या इसका अनुचित प्रयोग अत्यंत हानिकारक हो सकता है। इससे तीव्र त्वचा दाह (Severe skin burns/blisters), रक्तपित्त (Bleeding disorders), वृक्क विकार (Kidney damage) और अन्य गंभीर समस्याएं हो सकती हैं। इसका प्रयोग केवल शास्त्रोक्त विधि से शोधित करके और चिकित्सक के निर्देशानुसार ही करें।

भल्लातक: सामान्य गुण-धर्म (General Properties)

  • रस (Rasa): कटु (Pungent), तिक्त (Bitter), कषाय (Astringent)
  • गुण (Guna): लघु (Light), स्निग्ध (Unctuous), तीक्ष्ण (Sharp/Penetrating)
  • वीर्य (Virya): उष्ण (Ushna - Extremely Hot)
  • विपाक (Vipaka): मधुर (Madhura)
  • दोषकर्म (Action on Dosha): कफ-वात शामक, पित्त वर्धक।
  • मुख्य कर्म (Therapeutic Properties): **अग्निवत् दीपन-पाचन** (Powerful digestive stimulant), **छेदन** (Expectorant/Scraping), **भेदन** (Purgative), **कृमिघ्न** (Anthelmintic), **कुष्ठघ्न** (Used in skin diseases), **अर्शोघ्न** (Used in piles), **शोथहर** (Anti-inflammatory), **मेध्य** (Brain tonic - in specific doses), **रसायन** (Rejuvenator - after proper processing)।
  • Chemical/Phytochemical Composition: Bhilawanol (a highly irritant phenolic compound), Anacardic acid, Cardol, Semecarpol. The irritant property is mainly due to Bhilawanol, which is reduced/neutralized during shodhana.

भल्लातक शोधन (Purification)

अशुद्ध भल्लातक का प्रयोग वर्जित है।

  • विधि: पके हुए, जल में डूबने वाले भल्लातक फलों को लेकर, उनकी वृन्त (टोपी) हटा दें। फलों को ईंट के चूर्ण (Brick powder) के साथ रगड़कर या गोमूत्र/गोदुग्ध में स्वेदन करके (दोला यन्त्र में) शोधित किया जाता है। इससे उसका तीक्ष्ण तैल (Irritant oil) कम हो जाता है।

भल्लातक का अवस्थाअनुसार प्रयोग (Awasthanusara Uses)

इसका प्रयोग कफ-वात प्रधान रोगों में, मंदाग्नि की अवस्था में, और शोथयुक्त व्याधियों में किया जाता है। **पित्त प्रकृति वाले व्यक्तियों, गर्भवती स्त्रियों, बालकों, वृद्धों, और ग्रीष्म/शरद ऋतु में इसका प्रयोग वर्जित है।**

  • अर्श (Piles - Non-bleeding): गुद (Guda), अवलेह (Avaleha), या घृत (Ghrita) कल्पना का प्रयोग किया जाता है। यह अर्श के मस्सों को सुखाता है।
  • कुष्ठ / त्वचा रोग (Skin Diseases - कफज): लेप (External paste), तैल (Oil), या क्वाथ का प्रयोग होता है।
  • गुल्म / उदर रोग (Abdominal tumors/disorders - कफ-वातज): घृत या मोदक का प्रयोग।
  • अग्निमांद्य / ग्रहणी (Indigestion / Malabsorption): अल्प मात्रा में मोदक या अवलेह।
  • रसायन (Rejuvenation): केवल शोधित भल्लातक का वर्धमान प्रयोग (Gradually increasing dose) अत्यंत सावधानी से चिकित्सक की देखरेख में।

भल्लातक की प्रमुख कल्पनाएँ (Major Formulations)

ध्यान दें: इन सभी कल्पनाओं में **केवल 'शोधित भल्लातक'** का ही प्रयोग किया जाता है।

१. भल्लातक मोदक (Bhallataka Modaka)

  • सन्दर्भ: भैषज्य रत्नावली (B.R.), प्लीह-यकृत् रोगाधिकार।
  • प्रमुख घटक: शोधित भल्लातक, त्रिकटु, त्रिफला, चित्रक, विडंग, गुड़ आदि।
  • Pharmacodynamics: अत्यंत उष्ण, तीक्ष्ण, दीपन-पाचन, कफ-वात शामक, भेदन, कृमिघ्न। यह अग्नि को प्रचंड करता है और संचित कफ-आम का भेदन करता है।
  • मुख्य संकेत (Indications): प्लीह-यकृत् वृद्धि (Splenomegaly/Hepatomegaly - कफज), अग्निमांद्य, ग्रहणी, अर्श, कृमि रोग।
  • मात्रा (Matra): अत्यंत अल्प (Initially 1 रत्ती - 125mg, gradually increased under supervision)।
  • अनुपान (Anupana): दुग्ध (Milk - to counteract heat), घृत (Ghee)।
  • सेवन काल (Sevana Kala): भोजनोपरांत।
  • Kala Maryada: अल्प काल के लिए (Few weeks), चिकित्सक की सलाह से।

२. भल्लातक घृत (Bhallataka Ghrita)

  • सन्दर्भ: B.R., गुल्म रोगाधिकार।
  • प्रमुख घटक: शोधित भल्लातक (कल्क/क्वाथ), गो घृत।
  • Pharmacokinetics: घृत कल्पना होने से यह भल्लातक के तीक्ष्ण गुणों को कुछ हद तक कम (Mitigate) करती है और उसके गुणों को स्रोतसों में गहराई तक ले जाती है।
  • Pharmacodynamics: उष्ण, दीपन, पाचन, अनुलोमक, गुल्मनाशक (Reduces abdominal lumps)।
  • मुख्य संकेत (Indications): कफ-वातज गुल्म, उदर रोग, अर्श।
  • मात्रा (Matra): ३-६ ग्राम, चिकित्सक की देखरेख में।
  • अनुपान (Anupana): उष्ण दुग्ध।

३. भल्लातक गुद (Bhallataka Guda)

  • सन्दर्भ: B.R., अर्श रोगाधिकार।
  • प्रमुख घटक: शोधित भल्लातक, चित्रक, त्रिकटु, त्रिफला, गुड़ आदि। (यह 'गुद कल्पना' - गुड़ आधारित पाक है)।
  • Pharmacodynamics: मोदक के समान, परन्तु गुड़ के कारण अधिक अनुलोमक। अर्शोघ्न (Effective in piles)।
  • मुख्य संकेत (Indications): शुष्क अर्श (Non-bleeding piles), भगंदर (Fistula-in-ano), अग्निमांद्य।
  • मात्रा (Matra): अल्प मात्रा (e.g., 1-2 ग्राम)।
  • अनुपान (Anupana): दुग्ध, तक्र।

४. भल्लातकादि तैल (Bhallatakadi Taila)

  • सन्दर्भ: B.R., नाडीव्रण रोगाधिकार।
  • प्रमुख घटक: शोधित भल्लातक, विभिन्न व्रणशोधक-रोपक द्रव्य, तिल तैल।
  • Pharmacodynamics (External): तीक्ष्ण, उष्ण, छेदन, लेखन, व्रणशोधन (Wound cleaning), कृमिघ्न। यह दुष्ट व्रण (Non-healing ulcer) या नाडीव्रण (Sinus tract) के भीतर जाकर दूषित मांस को हटाता है और रोपण (Healing) में मदद करता है।
  • मुख्य संकेत (Indications): **केवल बाह्य प्रयोग (External use only)** - नाडीव्रण, दुष्ट व्रण, कफज कुष्ठ।
  • प्रयोग विधि: व्रण में बत्ती (Gauze wick) भिगोकर लगाना।
  • Side Effects: त्वचा पर दाह (Burning), फफोले (Blisters) उत्पन्न कर सकता है। अत्यंत सावधानी से प्रयोग करें।

५. भल्लातक अवलेह (Bhallataka Avaleha)

  • सन्दर्भ: B.R., अर्श रोगाधिकार।
  • प्रमुख घटक: शोधित भल्लातक, अन्य दीपन-पाचन द्रव्य, शर्करा/गुड़, घृत, मधु।
  • Pharmacodynamics: गुद कल्पना के समान, परन्तु अवलेह रूप में। दीपन, पाचन, अर्शोघ्न, बल्य।
  • मुख्य संकेत (Indications): अर्श, अग्निमांद्य, ग्रहणी।
  • मात्रा (Matra): ३-६ ग्राम।
  • अनुपान (Anupana): दुग्ध।

६. भल्लातकादि लेप (Bhallatakadi Lepa)

  • सन्दर्भ: B.R., कुष्ठ रोगाधिकार।
  • प्रमुख घटक: शोधित भल्लातक, अन्य कुष्ठघ्न द्रव्य (जैसे - करंज, निम्ब), गोमूत्र या कोई द्रव माध्यम।
  • Pharmacodynamics (External): उष्ण, तीक्ष्ण, लेखन, कुष्ठघ्न। यह त्वचा के विकारों में दूषित कफ और क्लेद को सुखाता है।
  • मुख्य संकेत (Indications): **केवल बाह्य प्रयोग** - कफज कुष्ठ, श्वित्र (Leucoderma), दाद (Ringworm)।
  • प्रयोग विधि: प्रभावित स्थान पर लेप लगाना।
  • Side Effects: त्वचा पर तीव्र जलन, फफोले हो सकते हैं। पहले अल्प क्षेत्र पर लगाकर परीक्षण (Patch test) करना आवश्यक है।

७. भल्लातकादि क्वाथ (Bhallatakadi Kwatha)

  • सन्दर्भ: B.R., उरुस्तम्भ रोगाधिकार।
  • प्रमुख घटक: शोधित भल्लातक, अन्य कफ-मेद-वात शामक द्रव्य।
  • Pharmacodynamics: उष्ण, तीक्ष्ण, छेदन, कफ-मेद विलयन (Dissolves kapha and meda)।
  • मुख्य संकेत (Indications): उरुस्तम्भ (Stiffness/immobility of thighs due to kapha-ama), स्थौल्य (Obesity), कफज शोथ (Inflammation)।
  • मात्रा (Matra): ४०-८० ml।
  • अनुपान (Anupana): मधु या गोमूत्र।

भल्लातक प्रयोग जन्य व्यापद एवं शांति उपाय (Side effects / Toxicity & Management)

अशुद्ध भल्लातक या अनुचित मात्रा/विधि से सेवन करने पर या पित्त प्रकृति वाले व्यक्ति में निम्न लक्षण उत्पन्न हो सकते हैं:

  • त्वचा पर: तीव्र दाह (Burning), शोथ (Swelling), स्फोट (Blisters), कंडू (Itching)।
  • आंतरिक: मुखपाक (Stomatitis), गुदपाक (Anal inflammation), तीव्र अम्लपित्त, रक्तपित्त (Bleeding), मूत्रदाह/मूत्रकृच्छ (Burning micturition), वृक्क शोथ (Nephritis)।

शांति उपाय (Shantyupaya / Antidotes & Management):

  • तत्काल प्रयोग बंद करें।
  • बाह्य: नारियल तेल (Coconut oil), घृत, या मक्खन का लेप करें। तिल कल्क (Sesame paste) का लेप भी उपयोगी है।
  • आंतरिक:
    • **सर्वश्रेष्ठ:** **गो घृत (Cow's ghee)** और **गो दुग्ध (Cow's milk)** का प्रचुर मात्रा में सेवन।
    • नारियल जल (Coconut water) का पान।
    • पित्तशामक औषधियां: शतावरी, यष्टिमधु, आमलकी, चन्दन, उशीर।
    • यदि आवश्यक हो तो मृदु विरेचन (Mild purgation) दें।

भल्लातक प्रयोग: सामान्य पथ्य-अपथ्य (Pathyapathya)

  • पथ्य (Compatible): **गो घृत और गो दुग्ध का प्रचुर सेवन अनिवार्य है।** लघु, स्निग्ध, मधुर रस प्रधान भोजन। पुराने शालि चावल, मूंग दाल।
  • अपथ्य (Incompatible): **अम्ल, लवण, कटु रस का पूर्ण त्याग।** उष्ण, तीक्ष्ण, विदाही (Burning sensation causing) भोजन। दधि, मद्य, मांसाहार। आतप सेवन (Sun exposure), अग्नि सेवन, अति श्रम, क्रोध।

Research Updates:

Modern research has investigated Bhallataka (Semecarpus anacardium) extensively. Studies have validated its potent **anti-inflammatory, anti-arthritic, anti-cancer, antioxidant, and hypoglycemic activities**. The constituent Bhilawanol is identified as the major bioactive but also toxic component. Research focuses on methods to reduce its toxicity while retaining therapeutic effects, mirroring the Ayurvedic Shodhana process. Clinical evidence supports its use (with caution) in rheumatoid arthritis, certain skin conditions, and potentially as an adjuvant in cancer therapy, but high-quality human trials are limited due to toxicity concerns.


४. गंधक (Gandhaka - Sulphur)

गंधक, जिसे 'शुल्वारि' (ताम्र का शत्रु) भी कहते हैं, एक अधातु (Non-metal) खनिज द्रव्य है। यह रसशास्त्र में पारद के बाद दूसरा सबसे महत्वपूर्ण द्रव्य माना जाता है ('पारद का वीर्य')। इसका प्रयोग विभिन्न रोगों, विशेषकर त्वचा रोगों (कुष्ठ), में होता है। गंधक का प्रयोग भी **केवल शोधन (Purification) के बाद** ही किया जाता है।

⚠️ **चेतावनी** ⚠️

अशुद्ध गंधक का सेवन हानिकारक है। इससे त्वचा विकार, जलन, चक्कर आना आदि लक्षण हो सकते हैं। इसका प्रयोग केवल शास्त्रोक्त विधि से शोधित करके और चिकित्सक के निर्देशानुसार ही करें।

गंधक: सामान्य गुण-धर्म (General Properties)

  • रस (Rasa): मधुर (Sweet - after shodhana, initially pungent/bitter)
  • गुण (Guna): स्निग्ध (Unctuous), गुरु (Heavy), सर (Mobile)
  • वीर्य (Virya): उष्ण (Ushna)
  • विपाक (Vipaka): कटु (Pungent) - *कुछ आचार्य मधुर भी मानते हैं।*
  • दोषकर्म (Action on Dosha): त्रिदोषहर (विशेषतः कफ-वात शामक), पित्त सारक।
  • मुख्य कर्म (Therapeutic Properties): **रसायन** (Rejuvenator - esp. Gandhaka Rasayana), **कुष्ठघ्न** (Excellent for skin diseases), **कण्डूघ्न** (Anti-pruritic), **कृमिघ्न** (Anthelmintic), **दीपन-पाचन**, **आमपाचक**, **विषघ्न** (Anti-toxic), **वृष्य** (Aphrodisiac)।
  • Chemical Composition: Sulphur (S).

गंधक शोधन (Purification)

गंधक में पाषाण (Stone) और विष (Arsenic compounds) की अशुद्धियाँ होती हैं।

  • सामान्य विधि (भृंगराज स्वरस द्वारा): गंधक के टुकड़ों को लोहे की कड़ाही में गो घृत डालकर पिघलाया जाता है। पिघले हुए गंधक को भृंगराज स्वरस (या गोदुग्ध) में डूबे हुए वस्त्र से छानकर गिराया जाता है। इस प्रक्रिया को ३ से ७ बार दोहराया जाता है।

गंधक का अवस्थाअनुसार प्रयोग (Awasthanusara Uses)

  • त्वचा रोग / कण्डू (Skin Diseases/Itching): चूर्ण, रसायन, तैल या मलहर का प्रयोग (आंतरिक और बाह्य)।
  • जीर्ण ज्वर / धातुगत ज्वर: गंधक रसायन।
  • अग्निमांद्य / आमवात: गंधक वटी।
  • कृमि रोग: गंधक चूर्ण।
  • रसायन / बल वृद्धि: गंधक रसायन।

गंधक की प्रमुख कल्पनाएँ (Major Formulations)

१. गंधक चूर्ण (Gandhaka Churna - Shuddha)

  • सन्दर्भ: सिद्ध योग संग्रह (SY)
  • निर्माण: केवल 'शोधित गंधक' का बारीक चूर्ण।
  • Pharmacodynamics: उष्ण वीर्य, कटु विपाक। यह दीपन, पाचन, कृमिघ्न, कण्डूघ्न और कुष्ठघ्न है।
  • मुख्य संकेत (Indications): कण्डू (Itching), पामा (Scabies), विचर्चिका (Eczema), कृमि रोग।
  • मात्रा (Matra): १-२ रत्ती (125-250 mg)।
  • अनुपान (Anupana): मधु, घृत, या रोगानुसार।
  • Side Effects: उष्ण होने से पित्त प्रकृति वालों में दाह या अम्लपित्त कर सकता है।

२. गंधक रसायन (Gandhaka Rasayana)

  • सन्दर्भ: AFI Part II
  • निर्माण: शोधित गंधक को चतुर्जात, त्रिकटु, त्रिफला, गुडूची, भृंगराज आदि अनेक द्रव्यों के स्वरस/क्वाथ की 'भावना' (Levigation) देकर तैयार किया जाता है। यह एक जटिल प्रक्रिया है।
  • Pharmacodynamics: यह गंधक का 'रसायन' योग है। भावना देने वाले द्रव्यों के गुणों से गंधक के उष्ण-तीक्ष्ण गुण कम होते हैं और रसायन, विषघ्न, रक्तशोधक (Blood purifier) गुण बढ़ जाते हैं। यह त्रिदोषहर और व्याधिक्षमत्व वर्धक (Immunomodulator) है।
  • Pharmacokinetics: भावना देने से यह सूक्ष्म (Subtle) और अधिक Bioavailable हो जाता है।
  • मुख्य संकेत (Indications): **सर्व कुष्ठ** (All types of skin diseases), कण्डू, विसर्प, उपदंश (Syphilis), जीर्ण ज्वर, आमवात, श्वास, कास, दौर्बल्य। यह एक उत्कृष्ट रसायन है।
  • मात्रा (Matra): १-४ रत्ती (125-500 mg)।
  • अनुपान (Anupana): मधु, घृत, दुग्ध, या रोगानुसार।
  • Kala Maryada: दीर्घ काल तक सेवन योग्य।
  • Research: गंधक रसायन पर शोध इसके Anti-inflammatory, Antioxidant, Anti-allergic, and Immunomodulatory गुणों की पुष्टि करते हैं, जो त्वचा रोगों और एलर्जी में इसकी उपयोगिता सिद्ध करते हैं।

३. गंधक द्रुति (Gandhaka Druti)

  • सन्दर्भ: रस हृदय तंत्र (RRR) ३
  • निर्माण: यह गंधक को पिघलाकर (Liquefied state) प्राप्त करने की एक विशिष्ट और जटिल प्रक्रिया है, जिसमें तीव्र अग्नि और विशिष्ट यंत्रों का प्रयोग होता है। यह सामान्यतः प्रयोग में नहीं है।
  • Pharmacodynamics: इसे अत्यंत शक्तिशाली रसायन और योगवाही माना जाता है।
  • मुख्य संकेत (Indications): रसशास्त्र के उच्चतर प्रयोगों में।
  • मात्रा (Matra): अत्यंत अल्प (कुछ बूँद)।

४. गंधक तैल (Gandhaka Taila)

  • सन्दर्भ: रस तरंगिणी (R.T.) ८
  • निर्माण: शोधित गंधक को तिल तैल या अन्य तैल के साथ विशिष्ट विधि से पकाया जाता है (जैसे - पाताल यन्त्र द्वारा)।
  • Pharmacodynamics (External): उष्ण, तीक्ष्ण, स्निग्ध, कण्डूघ्न, कुष्ठघ्न, व्रणशोधन-रोपण।
  • मुख्य संकेत (Indications): **केवल बाह्य प्रयोग** - कण्डू, पामा, विचर्चिका, दद्रु (Ringworm), अन्य त्वचा विकार।
  • प्रयोग विधि: प्रभावित स्थान पर लगाना।

५. गंधकाद्य मलहर (Gandhakadya Malahara)

  • सन्दर्भ: AFI Part II
  • प्रमुख घटक: शोधित गंधक, टंकण (Borax), कर्पूर, सिकथ (Beeswax), तिल तैल।
  • Pharmacodynamics (External): मलहर (Ointment) कल्पना होने से यह त्वचा पर अधिक समय तक टिका रहता है। गंधक (कुष्ठघ्न), टंकण (क्षार - Antiseptic), कर्पूर (कण्डूघ्न)।
  • मुख्य संकेत (Indications): **केवल बाह्य प्रयोग** - पामा, विचर्चिका, कण्डू, दद्रु।
  • प्रयोग विधि: प्रभावित स्थान पर दिन में 2-3 बार लगाना।

६. गंधकादि लेप (Gandhakadi Lepa)

  • सन्दर्भ: रसराज सुन्दर (RRS), शिरोरोग चिकित्सा। (Note: कई 'गंधकादि लेप' योग हैं)।
  • प्रमुख घटक: शोधित गंधक, कुष्ठ, देवदारु, वचा, सैंधव आदि, द्रव माध्यम (जैसे - तैल, कांजी)।
  • Pharmacodynamics (External): उष्ण, कफ-वात शामक, शोथहर, वेदनास्थापन।
  • मुख्य संकेत (Indications): **केवल बाह्य प्रयोग** - शिरोरोग (Headache - कफज), त्वचा रोग, शोथ (Inflammation)।
  • प्रयोग विधि: प्रभावित स्थान पर लेप।

७. गंधक वटी (Gandhaka Vati)

  • सन्दर्भ: B.R., अग्निमांद्य रोगाधिकार।
  • प्रमुख घटक: शोधित गंधक, त्रिकटु, चित्रक, शुण्ठी, सैंधव, निम्बू स्वरस की भावना।
  • Pharmacodynamics: उष्ण, तीक्ष्ण, दीपन, पाचन, आमपाचक, शूलघ्न (Anti-spasmodic)। यह जठराग्नि को तीव्र करती है।
  • मुख्य संकेत (Indications): अग्निमांद्य, अजीर्ण, आमवात, उदरशूल, ग्रहणी।
  • मात्रा (Matra): १-२ वटी (१२५-२५० mg)।
  • अनुपान (Anupana): उष्ण जल।
  • सेवन काल (Sevana Kala): भोजनोपरांत या रोगानुसार।

गंधक प्रयोग: सामान्य पथ्य-अपथ्य (Pathyapathya)

  • पथ्य (Compatible): लघु भोजन, घृत, दुग्ध, मूंग दाल।
  • अपथ्य (Incompatible): अत्यधिक क्षार, अम्ल, लवण। तिल तैल का अधिक प्रयोग। गुरु भोजन।

५. गैरिक (Gairika - Red Ochre)

गैरिक, जिसे 'स्वर्ण गैरिक' (यदि उसमें स्वर्ण के अंश हों) या 'रक्त धातु' भी कहते हैं, एक 'उपरस' वर्ग का खनिज है। यह मुख्य रूप से 'हेमेटाइट' (Hematite - Iron Oxide, Fe₂O₃) का एक प्राकृतिक रूप है। इसका प्रयोग आंतरिक और बाह्य दोनों रूप से किया जाता है। गैरिक का प्रयोग भी **शोधन (Purification)** के बाद ही उत्तम माना जाता है।

गैरिक: सामान्य गुण-धर्म (General Properties)

  • रस (Rasa): मधुर (Sweet), कषाय (Astringent)
  • गुण (Guna): स्निग्ध (Unctuous), शीत (Cold)
  • वीर्य (Virya): शीत (Shita)
  • विपाक (Vipaka): मधुर (Madhura)
  • दोषकर्म (Action on Dosha): पित्त-कफ शामक।
  • मुख्य कर्म (Therapeutic Properties): रक्तस्तम्भन (Hemostatic/Astringent), दाहप्रशमन (Reduces burning), रक्तपित्तहर (Controls bleeding disorders), हिक्का निग्रहण (Anti-hiccup), व्रणरोपण (Wound healing), चक्षुष्य (Good for eyes), वमन निग्रहण (Anti-emetic), विषघ्न (Anti-toxic)।
  • Chemical Composition: Primarily Ferric Oxide (Fe₂O₃), often with impurities like Silica and Alumina.

गैरिक शोधन (Purification)

  • विधि: गैरिक के टुकड़ों को गो घृत में भर्जित (Fried) किया जाता है, या गोदुग्ध/त्रिफला क्वाथ की भावना दी जाती है।

गैरिक का अवस्थाअनुसार प्रयोग (Awasthanusara Uses)

  • रक्तपित्त / रक्तस्राव (Bleeding disorders): आंतरिक प्रयोग (जैसे - लघुसूतशेखर रस) या बाह्य लेप (रक्तस्तम्भन हेतु)।
  • दाह / विसर्प (Burning sensation / Erysipelas): बाह्य प्रदेह (Paste application)।
  • हिक्का / वमन (Hiccup / Vomiting): चूर्ण या रस क्रिया का प्रयोग।
  • नेत्र रोग (Eye diseases): अंजन (Collyrium) रूप में।
  • त्वचा विकार / वर्ण्य (Skin issues / Complexion): बाह्य लेप।

गैरिक की प्रमुख कल्पनाएँ (Major Formulations)

१. गैरिक प्रदेह (Gairika Pradeha)

  • सन्दर्भ: चरक संहिता, चिकित्सास्थान २१ (विसर्प चिकित्सा)।
  • निर्माण: शोधित गैरिक चूर्ण को घृत या जल या अन्य शीतल द्रव्यों (जैसे - चन्दन, उशीर) के साथ मिलाकर लेप बनाना।
  • Pharmacodynamics (External): शीत, स्निग्ध, कषाय। यह त्वचा पर लगाने से दाह (Burning), शोथ (Inflammation) और रक्तस्राव को कम करता है। व्रण पर लगाने से रोपण (Healing) में मदद करता है।
  • मुख्य संकेत (Indications): **केवल बाह्य प्रयोग** - विसर्प (Erysipelas), पित्तज शोथ, दाह, रक्तस्रावी व्रण (Bleeding wounds), पित्तज त्वचा विकार।
  • प्रयोग विधि: प्रभावित स्थान पर लेप लगाना।

२. लघुसूतशेखर रस (Laghusutshekhar Rasa)

  • सन्दर्भ: AFI Part II
  • प्रमुख घटक: स्वर्ण गैरिक, शुण्ठी, नागवल्ली पत्र स्वरस की भावना।
  • Pharmacodynamics: गैरिक (शीत, पित्तशामक) और शुण्ठी (उष्ण, दीपन-पाचन, आमपाचक) का यह योग **'उभय विपरीत वीर्य'** (Opposite potencies) होते हुए भी विशिष्ट कार्य करता है। यह पित्त का शमन करता है, परन्तु शुण्ठी के कारण अग्नि को मंद नहीं होने देता। यह 'आम' का पाचन कर पित्त की विकृति को दूर करता है।
  • Pharmacokinetics: भावना देने से सूक्ष्म और शीघ्र प्रभावी।
  • मुख्य संकेत (Indications): **अम्लपित्त (Hyperacidity)** की श्रेष्ठ औषध, शिरःशूल (Headache - पित्तज), उदरशूल (Abdominal pain), भ्रम (Vertigo), छर्दि (Vomiting)।
  • मात्रा (Matra): १-२ रत्ती (125-250 mg)।
  • अनुपान (Anupana): मधु, घृत, या दाडिम स्वरस।
  • सेवन काल (Sevana Kala): भोजन पूर्व या आवश्यकतानुसार।

३. गैरिकद्य मलहर (Gairikadya Malahara)

  • सन्दर्भ: AFI Part III
  • प्रमुख घटक: गैरिक, रसौत (Rasanjana), मधु, घृत (या सिकथ तैल)।
  • Pharmacodynamics (External): गैरिक (शीत, रोपण), रसौत (कषाय, व्रणशोधन)। यह मलहर व्रणों को भरने और दाह को शांत करने में सहायक है।
  • मुख्य संकेत (Indications): **केवल बाह्य प्रयोग** - व्रण रोपण (Wound healing), दाह, मुखपाक (Stomatitis - लगाने हेतु), गुदभ्रंश (Anal prolapse - लगाने हेतु)।
  • प्रयोग विधि: प्रभावित स्थान पर लगाना।

४. गैरिकद्य गुटिकाञ्जन (Gairikadya Gutikanjana)

  • सन्दर्भ: B.R., नेत्ररोग अधिकार।
  • प्रमुख घटक: गैरिक, रसौत, सैंधव, मधु आदि।
  • Pharmacodynamics (External - Eye): गैरिक (चक्षुष्य, शीत), रसौत (लेखन, रोपण), सैंधव (लेखन)। यह अंजन (Collyrium) नेत्रों का शोधन कर, शोथ और दाह को कम करता है।
  • मुख्य संकेत (Indications): **केवल बाह्य प्रयोग (नेत्रों में)** - नेत्र शोथ (Conjunctivitis), नेत्र दाह, अभिष्यंद।
  • प्रयोग विधि: गुटिका को जल या मधु में घिसकर अंजन शलाका से नेत्रों में लगाना।

५. गैरिक रसक्रिया (Gairika Rasakriya)

  • सन्दर्भ: चरक संहिता, चिकित्सास्थान २६/२३५ (त्रिमर्मीय अध्याय)।
  • निर्माण: गैरिक को क्वाथ आदि में पकाकर गाढ़ा (Semi-solid) करना।
  • Pharmacodynamics: शीत, रक्तस्तम्भन, छर्दिनिग्रहण।
  • मुख्य संकेत (Indications): हिक्का (Hiccup), छर्दि, रक्तपित्त।
  • मात्रा (Matra): चिकित्सक निर्देशानुसार।
  • अनुपान (Anupana): मधु।

६. वर्णकर लेप (Varnakara Lepa)

  • सन्दर्भ: चरक संहिता, चिकित्सास्थान २५/११७ (व्रण चिकित्सा)।
  • प्रमुख घटक: गैरिक, मञ्जिष्ठा, चन्दन, सारिवा आदि वर्ण्य (Complexion improving) द्रव्य।
  • Pharmacodynamics (External): शीत, वर्ण्य, दाहप्रशमन, व्रण रोपण।
  • मुख्य संकेत (Indications): **केवल बाह्य प्रयोग** - व्रण के निशान (Scars), मुख दूषिका (Acne), त्वचा का वर्ण सुधारने हेतु (Complexion improvement)।
  • प्रयोग विधि: जल या दुग्ध में मिलाकर लेप।

गैरिक प्रयोग: सामान्य पथ्य-अपथ्य (Pathyapathya)

  • पथ्य (Compatible): लघु भोजन, मधुर-तिक्त-कषाय रस प्रधान आहार। दुग्ध, घृत।
  • अपथ्य (Incompatible): अत्यधिक अम्ल, लवण, कटु रस। उष्ण, तीक्ष्ण, विदाही भोजन।

Research Updates:

Research on Gairika (Hematite/Red Ochre) primarily focuses on its traditional uses and chemical composition. Studies confirm its high iron content. Its use in formulations like Laghusutshekhar Rasa for hyperacidity is clinically well-established in Ayurvedic practice. Its astringent (Kashaya) and cooling (Shita) properties are utilized in external applications (Lepas, Malaharas) for skin inflammation and wound healing, although large-scale modern clinical trials are less common compared to herbal drugs.

About the Author: Sparsh Varshney

Sparsh Varshney is a BAMS (Bachelor of Ayurvedic Medicine and Surgery) student and the founder of AmidhaAyurveda.com. His mission is to share the deep and timeless wisdom of Ayurveda in an accessible and practical way, empowering people to reclaim their health naturally.

Disclaimer: This article is for educational purposes only, intended for BAMS students. This information is based on Ayurvedic Samhitas and textbooks. For any medical advice or treatment, always consult a qualified Ayurvedic practitioner.

Kalpana Nirmana-II

कल्पना निर्माण II (द्वितीयक कल्पनाएं एवं पथ्य) - रसशास्त्र नोट्स | BAMS Notes

कल्पना निर्माण II (द्वितीयक कल्पनाएं एवं पथ्य) - रसशास्त्र नोट्स

यह लेख BAMS द्वितीय वर्ष के रसशास्त्र एवं भैषज्य कल्पना विषय के अंतर्गत 'कल्पना निर्माण II (Kalpana Nirmana II)' अध्याय पर केंद्रित है। पिछले अध्याय में हमने प्राथमिक कल्पनाओं (पंचविध कषाय कल्पना) और कुछ सरल उपकल्पनाओं का अध्ययन किया था। इस अध्याय में हम प्रमुख द्वितीयक कल्पनाओं - अवलेह (Avaleha), स्नेह कल्पना (Sneha Kalpana - घृत एवं तैल), संधान कल्पना (Sandhana Kalpana - आसव एवं अरिष्ट) - और पथ्य कल्पना (Pathya Kalpana - Dietary preparations) का विस्तृत अध्ययन करेंगे।

प्रत्येक कल्पना की परिभाषा, संदर्भ, आवश्यक सामग्री, सामान्य एवं विशिष्ट निर्माण विधि, सिद्धांत, प्रयुक्त उपकरण, पाक परीक्षा (सिद्धि लक्षण), मात्रा, संग्रहण, सेवन काल (shelf life), आधुनिक दृष्टिकोण, उदाहरण, अनुसंधान अद्यतन और बाजार सर्वेक्षण पर विस्तार से चर्चा की जाएगी।

अध्याय सार (Chapter in Brief)

  • अवलेह/लेह/पाक: क्वाथ आदि द्रव को गाढ़ा कर (शर्करा/गुड़ मिलाकर) बनाई जाने वाली अर्ध-ठोस (चाटने योग्य) कल्पना। पाक परीक्षा महत्वपूर्ण। उदाहरण: वासावलेह, कूष्माण्ड अवलेह।
  • स्नेह कल्पना: औषध द्रव्यों के सार को घृत या तैल में समाविष्ट करने की प्रक्रिया (मूर्छन, स्नेह पाक)। त्रिविध पाक (मृदु, मध्यम, खर) महत्वपूर्ण। उदाहरण: फल घृत, क्षीरबला तैल। आवर्तन द्वारा गुण वृद्धि।
  • संधान कल्पना: द्रव्यों को द्रव माध्यम में किण्वन (Fermentation) द्वारा तैयार की जाने वाली कल्पना (आसव - बिना उबाले, अरिष्ट - उबालकर)। संधान पात्र, काल, तापमान महत्वपूर्ण। उदाहरण: द्राक्षारिष्ट, उशीरासव।
  • पथ्य कल्पना: रोगी के लिए सुपाच्य और रोगानुसार हितकर आहार बनाने की विधियाँ। मुख्य कल्पनाएं - पेय कल्पना (मण्ड, पेया, विलेपी, यवागू, ओदन), यूष कल्पना (शाक/दाल का सूप), तक्र कल्पना, खड, काम्बलिक, रागषाडव आदि।
  • प्रत्येक कल्पना का विस्तृत अध्ययन: परिभाषा, विधि, पाक परीक्षा, मात्रा, संग्रहण, सेवन काल, आधुनिक सहसंबंध, अनुसंधान एवं बाजार सर्वेक्षण।

कल्पना निर्माण II: द्वितीयक कल्पनाएं एवं पथ्य कल्पना

1. अवलेह कल्पना (Avaleha Kalpana - Linctus/Herbal Jam)

परिभाषा एवं संदर्भ:

लेहः स्यात् क्वाथकल्कादेः शर्करगुडपाचितः।
द्रवं घनं वा तन्मात्रं निर्दिष्टमथ गृह्यते॥

(शारंगधर संहिता, मध्यम खण्ड ८/१)

व्याख्या: क्वाथ, कल्क, स्वरस आदि द्रव द्रव्यों को शर्करा (चीनी), गुड़ या मधु के साथ मंद अग्नि पर पकाकर जब वह गाढ़ा (घन) या अर्ध-ठोस (चाटने योग्य - लेह) हो जाए, तो उसे अवलेह, लेह या पाक कहते हैं।

संदर्भ: चरक, सुश्रुत, वाग्भट्ट, शारंगधर, भावप्रकाश आदि ग्रंथों में अनेक अवलेहों का वर्णन है।

आवश्यक सामग्री (Essential Ingredients):

  • द्रव द्रव्य (Liquid Base): क्वाथ, स्वरस, फाण्ट, दुग्ध, जल आदि।
  • मधुर द्रव्य (Sweetening Agent): शर्करा, गुड़, मिश्री, मधु (पाक ठंडा होने पर)।
  • मुख्य औषध द्रव्य (Main Drugs): प्रायः कल्क या चूर्ण रूप में।
  • प्रक्षेप द्रव्य (Additive Drugs): सुगंधित चूर्ण (जैसे त्रिकटु, त्रिजात), स्नेह (घृत/तैल) - पाक के अंत में मिलाए जाते हैं।

सामान्य निर्माण विधि (General Method):

  1. द्रव द्रव्य (क्वाथ आदि) को छानकर पात्र में डालें।
  2. उसमें निर्धारित मात्रा में शर्करा या गुड़ मिलाएं और घोलें।
  3. मंद अग्नि पर पकाएं, बीच-बीच में चलाते रहें।
  4. जब पाक गाढ़ा होने लगे (चाशनी बनने लगे), तो मुख्य औषध द्रव्यों का कल्क या चूर्ण धीरे-धीरे मिलाएं और लगातार चलाते रहें।
  5. निर्धारित पाक सिद्धि लक्षण आने पर अग्नि से उतार लें।
  6. यदि स्नेह (घी/तेल) डालना है, तो इसी समय मिलाएं।
  7. पाक के स्वतः ठंडा होने पर मधु (यदि निर्देश हो) और प्रक्षेप चूर्ण मिलाएं।
  8. अच्छी तरह मिलाकर चौड़े मुंह वाले कांच या चीनी मिट्टी के पात्र में सुरक्षित रखें।

सिद्धांत एवं तापमान का महत्व (Principle & Importance of Temp.):

  • सिद्धांत: औषध द्रव्यों के गुणों को मधुर माध्यम में संरक्षित करना, सेवन सुगम बनाना, और स्थायित्व बढ़ाना। शर्करा/गुड़ परिरक्षक (Preservative) का कार्य करते हैं।
  • तापमान: पाक क्रिया मंद अग्नि पर होनी चाहिए। तीव्र अग्नि से पाक जल सकता है या औषध के गुण नष्ट हो सकते हैं। पाक के अंत में तापमान विशेष महत्वपूर्ण है (पाक परीक्षा हेतु)।

उपकरण (Instruments):

लौह/स्टील/ताम्र का पात्र (कड़ाही), कलछी, अग्नि स्रोत, छानने का कपड़ा, कांच/चीनी मिट्टी का पात्र (संग्रहण हेतु)। बड़े पैमाने पर - स्टीम जैकेटेड केतली, मैकेनिकल स्टिरर।

पाक सिद्धि लक्षण (Tests for Proper Preparation):

तन्तुमत्त्वं जले मज्जनमङ्गुलीषु न लेपनम्।
गन्धवर्णरसोत्पत्तिः सिद्धलेहस्य लक्षणम्॥
पीडितोऽङ्गुलिभिर्यस्तु मुद्रां गृह्णाति लेहवत्।

(विभिन्न ग्रंथों का सार)
  • तन्तुमत्ता: कलछी से उठाने पर तार (तन्तु) बनना।
  • अप्सु मज्जनम्: पानी में डालने पर तुरंत घुलने के बजाय बैठ जाना।
  • अङ्गुलीषु न लेपनम् / मुद्रा ग्रहण: अंगूठे और तर्जनी के बीच दबाने पर चिपके नहीं और उंगलियों के निशान (मुद्रा) बन जाएं।
  • गन्ध-वर्ण-रस उत्पत्ति: विशिष्ट गंध, वर्ण और रस का प्रकट होना।
  • स्थिरता: ठंडा होने पर जम जाना (पत्थर जैसा कठोर नहीं)।

पाक की अवस्थाएं:

आम पाक (Under-cooked): पतला, पानी में घुल जाए, शीघ्र खराब। खर पाक (Over-cooked): कठोर, जलने की गंध, गुणहीन। मध्यम पाक (Correct consistency): उपरोक्त सिद्धि लक्षणों से युक्त, श्रेष्ठ।

मात्रा (Dose):

सामान्यतः 1 पल (≈ 50 g) तक, या 1-2 कर्ष (12-24 g)। व्यवहार में 5-15 g दिन में 1-2 बार।

संग्रहण एवं सेवन काल (Storage & Shelf Life):

चौड़े मुंह वाले, वायुरोधी कांच या चीनी मिट्टी के पात्र में रखें। सवीर्यता अवधि सामान्यतः 1 वर्ष।

उदाहरण (Examples):

  • वासावलेह (Vasavaleha): मुख्य घटक - वासा स्वरस, पिप्पली चूर्ण, शर्करा, मधु, घृत। उपयोग - कास, श्वास, रक्तपित्त।
  • कूष्माण्ड अवलेह/पाक (Kushmanda Avaleha): मुख्य घटक - कूष्माण्ड (पेठा) स्वरस/कल्क, शर्करा, घृत, पिप्पली, शुण्ठी आदि प्रक्षेप। उपयोग - क्षय, दौर्बल्य, रक्तपित्त, उरःक्षत, रसायन।
  • अन्य: च्यवनप्राश, कंटकार्यवलेह, द्राक्षावलेह, चित्रक हरीतकी।

अनुसंधान अद्यतन एवं बाजार सर्वेक्षण (Research & Market Survey):

अवलेहों के मानकीकरण (Standardization), विभिन्न द्रव्यों के प्रभाव (जैसे एंटीऑक्सीडेंट, इम्युनोमॉड्यूलेटरी), और निर्माण प्रक्रिया में सुधार पर शोध हो रहे हैं। बाजार में च्यवनप्राश, वासावलेह आदि अनेक कंपनियों द्वारा उपलब्ध हैं।


2. स्नेह कल्पना (Sneha Kalpana - Medicated Ghee & Oil)

उद्देश्य एवं परिभाषा (Aims & Definition):

उद्देश्य (Aims):

  • औषध द्रव्यों के स्नेह-घुलनशील (Lipid-soluble) और जल-घुलनशील (Water-soluble - क्वाथ/स्वरस के माध्यम से) सक्रिय घटकों को स्नेह (घृत या तैल) में समाविष्ट करना।
  • स्नेह के अपने गुणों (वात-पित्त शामक, बृंहण, स्नेहन) के साथ औषध के गुणों को जोड़ना।
  • औषध को अधिक समय तक संरक्षित रखना।
  • अभ्यंग, नस्य, बस्ति, पान आदि विभिन्न मार्गों से प्रयोग योग्य बनाना।

परिभाषा: वह कल्पना जिसमें कल्क, क्वाथ/स्वरस आदि द्रव द्रव्यों को स्नेह (घृत या तैल) के साथ मिलाकर मंद अग्नि पर शास्त्रोक्त विधि से तब तक पकाया जाता है, जब तक केवल स्नेह शेष रह जाए और उसमें औषध द्रव्यों के गुण आ जाएं।

द्रवात् कल्कात् स्नेहपाको...
कल्कात् स्नेहाच्चतुर्गुणं। स्नेह चतुर्गुणं दद्यात् ... पयः स्वरस क्वाथं ...

(शारंगधर संहिता, मध्यम खण्ड ९/१-२ का भावार्थ)

आवश्यक सामग्री (Essential Ingredients):

  • स्नेह द्रव्य (Base Fat/Oil): प्रायः गो घृत (Cow's Ghee) या तिल तैल (Sesame Oil)। अन्य तैल (जैसे एरंड, सरसों, नारियल) भी प्रयोग होते हैं।
  • कल्क द्रव्य (Paste): मुख्य औषध द्रव्यों का महीन कल्क (Paste)।
  • द्रव द्रव्य (Liquid Media): जल, क्वाथ, स्वरस, दुग्ध, तक्र, कांजी आदि।
  • (गंध द्रव्य - सुगंध के लिए अंत में मिलाए जाते हैं, यदि निर्देश हो)।

सामान्य निर्माण विधि (General Method):

अनुपात (मान): कल्क : स्नेह : द्रव = 1 : 4 : 16 (यह सामान्य नियम है, निर्देशानुसार बदल सकता है)।

  1. सर्वप्रथम स्नेह का **मूर्छन** करें (अगला बिंदु देखें)।
  2. एक पात्र में कल्क और द्रव द्रव्य मिलाएं।
  3. फिर मूर्छित स्नेह मिलाएं।
  4. मंद अग्नि पर पाक प्रारम्भ करें। बीच-बीच में चलाते रहें।
  5. जब अधिकांश जल उड़ जाए और केवल स्नेह शेष रहने लगे (फेन शांति, शब्द शांति), तब स्नेह पाक परीक्षा करें।
  6. निर्धारित पाक (मृदु, मध्यम, खर) सिद्ध होने पर अग्नि से उतार लें।
  7. गुनगुना रहने पर छान लें। यदि गंध द्रव्य मिलाना है तो इसी समय मिलाएं।
  8. ठंडा होने पर कांच या स्टील के पात्र में सुरक्षित रखें।

घृत/तैल मूर्छन (Murchhana of Ghee/Oil):

स्नेह पाक से पहले घृत या तैल का मूर्छन करना आवश्यक है।

  • उद्देश्य: स्नेह में स्थित आम दोष, दुर्गंध, उग्रता को दूर करना, उसकी ग्राही क्षमता (Absorption capacity for drug properties) बढ़ाना, और वर्ण सुधारना।
  • विधि: स्नेह में कुछ विशिष्ट द्रव्य (जैसे घृत के लिए - त्रिफला, नागरमोथा, हरिद्रा; तैल के लिए - मंजिष्ठा, लोध्र, हरिद्रा, नागरमोथा आदि) का कल्क और जल मिलाकर मंद अग्नि पर पकाया जाता है, जब तक जल न उड़ जाए और स्नेह के सिद्धि लक्षण प्रकट न हों। फिर छान लिया जाता है।

स्नेह सिद्धि लक्षण एवं पाक के प्रकार (Tests & Types of Paka):

स्नेह पाक की सिद्धि (पूर्णता) की जांच महत्वपूर्ण है।

फेनोद्गमे ... गन्धवर्णरसोद्भवः।
... स्नेहोत्कर्षश्च मध्यमे॥
... वर्तिवत् कल्कः ... मृदुमध्यमखराः क्रमात्॥

(शारंगधर संहिता, मध्यम खण्ड ९/११-१४ का सार)
  • सामान्य लक्षण: फेन शांति (झाग का बैठ जाना), शब्द शांति (चटचटाहट बंद होना), विशिष्ट गंध-वर्ण-रस की उत्पत्ति।
  • कल्क परीक्षा: कल्क को अंगूठे और तर्जनी के बीच मसलने पर बत्ती (वर्ति) बने।
    • मृदु पाक (Mild): कल्क नरम हो, बत्ती बने पर थोड़ी चिपचिपाहट हो, अग्नि पर डालने पर हल्की चटचटाहट हो। (मुख्यतः नस्य हेतु)
    • मध्यम पाक (Moderate): कल्क न नरम न कठोर, बत्ती आसानी से बने, चिपचिपाहट न हो, अग्नि पर डालने पर शब्द न हो। (मुख्यतः पान, बस्ति, अभ्यंग हेतु - सर्वश्रेष्ठ पाक)
    • खर पाक (Hard): कल्क कठोर, सूखा, भंगुर हो, बत्ती मुश्किल से बने, अग्नि पर डालने पर जले। (मुख्यतः अभ्यंग हेतु)
    • दग्ध पाक (Burnt): कल्क काला, जला हुआ। (प्रयोग योग्य नहीं)
  • जल परीक्षा: स्नेह की बूंद पानी पर डालने पर फैल जाए।

पत्र पाक / गंध पाक (Patra Paka / Gandha Paka): जब स्नेह पाक में केवल सुगंधित द्रव्यों (जैसे चन्दन, अगरु) का प्रयोग कल्क के बिना किया जाता है, तो उसे गंध पाक कहते हैं।

पाक काल एवं तापमान (Time & Temperature):

  • पाक हमेशा मंद अग्नि पर करना चाहिए।
  • समय द्रव्य की मात्रा और अग्नि पर निर्भर करता है, कुछ घंटों से लेकर कई दिन लग सकते हैं।
  • तापमान 100°C के आसपास रहता है जब तक जल अंश रहता है, उसके बाद धीरे-धीरे बढ़ता है। सिद्धि लक्षण पर ध्यान देना महत्वपूर्ण है।

आवर्तन (Avartana):

स्नेह के गुणों को उत्तरोत्तर बढ़ाने के लिए स्नेह पाक की प्रक्रिया को उसी स्नेह में बार-बार दोहराना आवर्तन कहलाता है (जैसे क्षीरबला तैल 101 आवर्ती)। प्रत्येक आवर्तन में स्नेह में औषध के गुण बढ़ते जाते हैं।

मात्रा (Dose):

पान हेतु - अग्निबलानुसार ½ कर्ष से 1 पल तक। अभ्यंग, नस्य, बस्ति हेतु आवश्यकतानुसार।

संग्रहण एवं सेवन काल (Storage & Shelf Life):

कांच या स्टील के वायुरोधी पात्र में रखें। घृत की सवीर्यता अवधि 16 मास, तैल की 16 मास (या अधिक, तैल जल्दी खराब नहीं होता)।

उदाहरण (Examples):

  • फल घृत (Phala Ghrita): मुख्य द्रव्य - मंजिष्ठा, मुलेठी, कुष्ठ, त्रिफला, शतावरी आदि का कल्क, दुग्ध। उपयोग - बंध्यत्व (Infertility), गर्भपोषण।
  • क्षीरबला तैल (Ksheerabala Taila): मुख्य द्रव्य - बला मूल कल्क/क्वाथ, क्षीर, तिल तैल। उपयोग - वात रोग, अर्दित, पक्षाघात, दौर्बल्य (विशेषकर आवर्तित तैल)।
  • अन्य: ब्राह्मी घृत, पंचतिक्त घृत, महानारायण तैल, सहचरादि तैल।

अनुसंधान अद्यतन एवं बाजार सर्वेक्षण (Research & Market Survey):

स्नेह कल्पना के मानकीकरण, विभिन्न पाक अवस्थाओं के रासायनिक विश्लेषण, और विशिष्ट रोगों (जैसे न्यूरोलॉजिकल डिसऑर्डर) में उनकी प्रभावशीलता पर शोध हो रहे हैं। बाजार में अनेक प्रकार के सिद्ध घृत और तैल उपलब्ध हैं।


3. संधान कल्पना (Sandhana Kalpana - Fermented Formulations)

परिचय एवं महत्व (Introduction & Significance):

संधान कल्पना आयुर्वेद की एक विशिष्ट फर्मेंटेशन (किण्वन) आधारित प्रक्रिया है, जिससे आसव और अरिष्ट नामक अल्कोहलिक औषधियां बनाई जाती हैं।

  • महत्व:
    • किण्वन से औषध के गुण बदलते हैं, सूक्ष्म होते हैं, और शीघ्र प्रभावी होते हैं।
    • उत्पन्न अल्कोहल (स्वयं जनित) परिरक्षक (Preservative) का कार्य करता है, जिससे ये कल्पनाएं लंबे समय तक सुरक्षित रहती हैं।
    • यह कल्पना दीपन, पाचन, हृद्य, स्रोतोविशोधन गुणों से युक्त होती है।
    • अल्कोहल औषध के सक्रिय घटकों के निष्कर्षण (Extraction) और अवशोषण (Absorption) में मदद करता है।

वर्गीकरण (Classification):

संधान कल्पना को मुख्यतः दो भागों में बांटा गया है:

  1. मध्य कल्पना (Madya Kalpana): जिनमें अल्कोहल उत्पन्न होता है (जैसे आसव, अरिष्ट, सुरा, सीधु)।
  2. शुक्त कल्पना (Shukta Kalpana): जिनमें एसिटिक एसिड (सिरका) उत्पन्न होता है (जैसे कांजी, शुक्त, तक्रारिष्ट)।

हम यहाँ मुख्य रूप से आसव और अरिष्ट पर ध्यान केंद्रित करेंगे।

आसव एवं अरिष्ट में भेद (Difference between Asava & Arishta):

लक्षणआसव (Asava)अरिष्ट (Arishta)
निर्माण विधिऔषध द्रव्यों के स्वरस या शीतल जल में गुड़/शर्करा आदि मिलाकर संधान। (बिना उबाले)औषध द्रव्यों का क्वाथ बनाकर, ठंडा करके, उसमें गुड़/शर्करा आदि मिलाकर संधान। (उबालकर)
बल (Strength)अरिष्ट की अपेक्षा अधिक बलवान (सामान्यतः)आसव की अपेक्षा कम बलवान (सामान्यतः)
उदाहरणकुमार्यासव, उशीरासव, चन्दनासवदशमूलारिष्ट, अर्जुनारिष्ट, द्राक्षारिष्ट

आवश्यक सामग्री (Essential Ingredients):

  • द्रव द्रव्य (Liquid Base): आसव के लिए - जल/स्वरस; अरिष्ट के लिए - क्वाथ।
  • मधुर द्रव्य (Fermenting Agent): गुड़ (पुराना), शर्करा, मधु, धान्य (जैसे चावल)।
  • संधान द्रव्य / किण्व (Yeast Source): धातकी पुष्प (Woodfordia fruticosa flowers) - यह प्राकृतिक यीस्ट का स्रोत है और संधान प्रक्रिया शुरू करता है।
  • प्रक्षेप द्रव्य (Aromatic/Additive Drugs): सुगंधित द्रव्यों (जैसे त्रिजात, त्रिकटु, नागरमोथा) का चूर्ण, जो संधान पूर्ण होने के बाद मिलाया जाता है।

अनुक्त मान (Unspecified Quantities): यदि शास्त्र में मात्रा न बताई हो तो सामान्य नियम - द्रव (क्वाथ/जल) - 1 द्रोण (≈ 12 L), गुड़ - 1 तुला (≈ 4.8 kg), मधु - गुड़ का आधा, प्रक्षेप - गुड़ का 1/10 भाग, धातकी पुष्प - गुड़ का 1/10 भाग।

सामान्य निर्माण विधि (General Method - Sandhana Vidhi):

  1. पात्र चयन (Sandhana Patra): मिट्टी का लेप किया हुआ घड़ा (स्निग्ध घट) या आजकल लकड़ी के पीपे (Wooden vats) या स्टील के टैंक। पात्र को धूपन (Fumigation - जैसे गुग्गुलु, वचा से) कर निर्जन्तुक (Sterilize) करें।
  2. द्रव्य मिश्रण: पात्र में द्रव (क्वाथ/जल), गुड़/शर्करा/मधु, संधान द्रव्य (धातकी पुष्प) आदि मिलाएं।
  3. संधान स्थापन: पात्र का मुख अच्छी तरह बंद (सन्धि लेपन) कर दें ताकि हवा अंदर न जाए, पर गैस बाहर निकल सके (या आधुनिक एयर-लॉक लगाएं)।
  4. स्थान चयन: पात्र को स्थिर, समान तापमान वाले स्थान पर (जैसे भूमिगत कक्ष, धान की राशि में) रखें। तापमान लगभग 25-30°C अनुकूल होता है।
  5. संधान काल (Fermentation Period): यह ऋतु, तापमान और द्रव्यों पर निर्भर करता है (7 दिन से 1 माह या अधिक)।
  6. संधान परीक्षा (Observations/Tests):
    • शब्द श्रवण: कान लगाने पर बुदबुदाहट (Bubbling sound) सुनाई देना (सक्रिय किण्वन)।
    • जलती शलाका परीक्षा (Burning Candle Test):** पात्र के मुख के पास जलती तीली ले जाने पर यदि बुझ जाए तो CO2 बन रही है (सक्रिय किण्वन), यदि तेजी से जले तो अल्कोहल वाष्प है, यदि सामान्य जले तो संधान पूर्ण हो सकता है।
    • चूना जल परीक्षा (Lime Water Test): पात्र से निकलने वाली गैस को चूने के पानी में प्रवाहित करने पर यदि वह दूधिया हो जाए तो CO2 बन रही है।
    • अन्य लक्षण: विशिष्ट गंध आना, द्रव का स्थिर हो जाना, मुख्य द्रव्यों का नीचे बैठ जाना।
  7. निस्रावण एवं प्रक्षेप: संधान पूर्ण होने पर द्रव को सावधानी से छान लें।
  8. इसमें निर्धारित प्रक्षेप द्रव्यों का चूर्ण मिलाएं।
  9. धारण काल: प्रक्षेप मिलाने के बाद पुनः कुछ दिनों (7-15 दिन) के लिए बंद पात्र में रखें ताकि प्रक्षेप के गुण समाविष्ट हो जाएं।
  10. अंत में छानकर बोतलों में भर लें।

संधान प्रक्रिया में महत्वपूर्ण कारक:

  • पात्र (Vessel): स्वच्छ, निर्जन्तुक, उचित आकार का।
  • स्थान (Place): समान तापमान, हवादार, स्वच्छ।
  • तापमान (Temperature): 25-30°C इष्टतम। कम या अधिक तापमान संधान को बाधित करता है।
  • संधान काल (Duration): ऋतु अनुसार भिन्न (ग्रीष्म में कम, शीत में अधिक)।
  • मधुर द्रव्य: गुड़/शर्करा/मधु की गुणवत्ता और मात्रा।
  • धातकी पुष्प: किण्व का मुख्य स्रोत, इसकी गुणवत्ता महत्वपूर्ण।
  • भस्म/प्रक्षेप: कुछ योगों में भस्म (जैसे लौहासव) या अन्य प्रक्षेप संधान के बाद मिलाए जाते हैं।

मात्रा (Dose):

2 से 4 तोला (24-48 ml), सामान्यतः 15-30 ml दिन में 2 बार भोजन के बाद समान मात्रा में जल मिलाकर।

संग्रहण एवं सेवन काल (Storage & Shelf Life):

रंगीन कांच की बोतलों में, ठंडे स्थान पर रखें। आसव-अरिष्ट चिरकाल तक स्थायी रहते हैं ('आसवा अरिष्टाश्च सर्वे स्युः चिरस्थायिनो गुणाधिकाः')। इनकी कोई निश्चित सवीर्यता अवधि नहीं है, जितने पुराने हों उतने गुणकारी माने जाते हैं (यदि विकृत न हुए हों)।

अल्कोहल प्रतिशत (%): स्वयं जनित अल्कोहल की मात्रा सामान्यतः 5-12% v/v होती है।

उदाहरण (Examples):

  • द्राक्षारिष्ट (Draksharishta): मुख्य घटक - द्राक्षा (मुनक्का) क्वाथ, गुड़, धातकी पुष्प, प्रक्षेप (त्रिजात, त्रिकटु आदि)। उपयोग - कास, श्वास, क्षय, दौर्बल्य, अर्श, अग्निमांद्य।
  • उशीरासव (Usheerasava): मुख्य घटक - उशीर, कमल, लोध्र आदि का शीतल जल, शर्करा, मधु, धातकी पुष्प, प्रक्षेप (पाठ, मंजिष्ठा आदि)। उपयोग - रक्तपित्त, दाह, तृष्णा, पाण्डु, प्रमेह, त्वचा रोग।
  • अन्य: दशमूलारिष्ट, अर्जुनारिष्ट, अश्वगंधारिष्ट, कुमार्यासव, लोहासव, पुनर्नवासव।

अनुसंधान अद्यतन एवं बाजार सर्वेक्षण (Research & Market Survey):

संधान प्रक्रिया के मानकीकरण, अल्कोहल प्रतिशत नियंत्रण, यीस्ट की भूमिका, विभिन्न योगों की प्रभावशीलता और सुरक्षा पर निरंतर शोध हो रहे हैं। आसव-अरिष्ट बाजार में सर्वाधिक बिकने वाली आयुर्वेदिक कल्पनाओं में से हैं।


4. पथ्य कल्पना (Pathya Kalpana - Dietary Preparations)

परिभाषा एवं महत्व (Definition & Significance):

पथ्य (Pathya): 'पथः अनपेतम् इति पथ्यम्।' अर्थात् जो पथ (मार्ग - यहाँ स्रोतस् या स्वास्थ्य) के लिए हितकर हो, उसे पथ्य कहते हैं। यह रोगी के लिए सुपाच्य (Easily digestible), अग्नि वर्धक (Appetizer), दोष शामक और बल प्रदान करने वाला आहार है।

पथ्ये सति गदार्तस्य किमौषधनिषेवणैः।
पथ्येऽसति गदार्तस्य किमौषधनिषेवणैः॥

(वैद्यजीवनम् / हारीत संहिता)

व्याख्या: रोगी के लिए यदि पथ्य (हितकर आहार) का सेवन किया जा रहा हो, तो औषध सेवन की क्या आवश्यकता है? और यदि पथ्य का सेवन नहीं किया जा रहा हो, तो औषध सेवन का क्या लाभ है? (अर्थात् चिकित्सा में पथ्य अत्यंत महत्वपूर्ण है)।

पथ्य कल्पना: रोगी की अग्नि, बल, दोष और रोग की अवस्था के अनुसार आहार द्रव्यों (जैसे चावल, दाल, सब्जियां) को विभिन्न विधियों से पकाकर सुपाच्य और हितकर स्वरूप प्रदान करने की प्रक्रिया पथ्य कल्पना कहलाती है।

प्रकार एवं सामान्य निर्माण विधि (Types & General Method):

प्रमुख पथ्य कल्पनाएं, विशेषकर **पेय कल्पना (Peya Kalpana - Rice/Cereal based preparations)**, निम्नलिखित हैं, जो उत्तरोत्तर गुरु होती हैं:

  1. मण्ड (Manda): चावल (1 भाग) को 14 गुना जल में पकाकर, बिना चावल के कणों वाला, केवल मांड (Supernatant liquid) लेना। (अत्यंत लघु, दीपन, अनुलोमन)।
  2. पेया (Peya): चावल (1 भाग) को 14 गुना जल में पकाकर, जिसमें चावल के कण (सिक्त) बहुत कम हों, अधिक द्रव भाग हो। (मण्ड से गुरु, दीपन, पाचन, ग्राही)।
  3. विलेपी (Vilepi): चावल (1 भाग) को 4 गुना जल में पकाकर, जिसमें द्रव कम और चावल के कण (सिक्त) अधिक हों, गाढ़ी हो। (पेया से गुरु, ग्राही, तर्पण, बल्य)।
  4. यवागू (Yavagu): चावल (1 भाग) को 6 गुना जल में पकाकर, जिसमें द्रव और चावल के कण समान हों (न गाढ़ी न पतली)। इसमें औषध द्रव्य मिलाकर भी बनाया जाता है (औषध सिद्ध यवागू)। (विलेपी से गुरु, दोषानुसार प्रयोग)।
  5. ओदन/अन्न (Odana/Anna): चावल (1 भाग) को 5 गुना जल में पकाकर, जब चावल पक जाए और पानी सूख जाए (भात)। (सबसे गुरु, सामान्य आहार)।

अन्य पथ्य कल्पनाएं:

  • कृशरा (Krishara): चावल, दाल (प्रायः मूंग), घी/तैल और मसालों (जैसे त्रिकटु) को मिलाकर पकाई गई खिचड़ी। (बृंहण, बल्य, वात शामक)।
  • यूष (Yusha): दालों (प्रायः मूंग) या अन्य शमी धान्यों को 14 या 18 गुना जल में पकाकर बनाया गया सूप (Soup)। इसे कृत (घी/मसालों से छौंका हुआ) या अकृत (बिना छौंका) रूप में प्रयोग करते हैं। (लघु, दीपन, पाचन, स्रोतोग्लानिकर)। मुद्ग यूष श्रेष्ठ माना गया है।
  • तक्र कल्पना (Takra Kalpana): छाछ (Buttermilk) में औषध द्रव्य मिलाकर या सिद्ध करके प्रयोग करना (जैसे तक्रारिष्ट, तक्र धारा)। (लघु, ग्राही, दीपन, अर्श-ग्रहणी में उत्तम)।
  • खड (Khada): तक्र में बेसन या सत्तू और औषध द्रव्य मिलाकर पकाया गया गाढ़ा पेय। (रुचिकर, दीपन)।
  • काम्बलिक (Kambalika): तक्र, अम्ल द्रव्य (जैसे अनारदाना), तिल कल्क, स्नेह और मसालों से बना गाढ़ा योग।
  • राग (Raga) / षाडव (Shadava): फलों के रस या गूदे में शर्करा, लवण, मसाले मिलाकर बनाया गया चटनी जैसा योग (Sweet & sour appetizer)।

महत्व (Significance):

  • रोग की अवस्था में जब जठराग्नि मंद होती है, तब ये कल्पनाएं सुपाच्य पोषण प्रदान करती हैं।
  • शोधन कर्म (पंचकर्म) के पश्चात् अग्नि को धीरे-धीरे बढ़ाने (संसर्जन क्रम) में इनका प्रयोग होता है।
  • विभिन्न रोगों में दोषानुसार विशिष्ट पथ्य कल्पना का निर्देश होता है।

अनुसंधान अद्यतन एवं बाजार सर्वेक्षण (Research & Market Survey):

विभिन्न पथ्य कल्पनाओं के पोषण मूल्य (Nutritional value), पाचन पर प्रभाव और विशिष्ट रोगों में उनकी उपयोगिता पर शोध हो रहे हैं। आजकल बाजार में इंस्टेंट खिचड़ी, सूप मिक्स, हर्बल ड्रिंक्स आदि के रूप में पथ्य कल्पनाओं से मिलते-जुलते अनेक डाइटरी सप्लीमेंट्स (Dietary Supplements) उपलब्ध हैं, जिनकी गुणवत्ता और शास्त्रीयता का मूल्यांकन आवश्यक है।

परीक्षा-उपयोगी प्रश्न (Exam-Oriented Questions)

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न (10 Marks Questions)

  1. अवलेह कल्पना का सोदाहरण वर्णन करें (परिभाषा, विधि, पाक परीक्षा, मात्रा, सेवन काल)।
  2. स्नेह कल्पना का उद्देश्य बताते हुए सामान्य निर्माण विधि, मूर्छन, स्नेह पाक परीक्षा (त्रिविध पाक) और आवर्तन का वर्णन करें।
  3. संधान कल्पना क्या है? आसव एवं अरिष्ट में भेद स्पष्ट करते हुए सामान्य निर्माण विधि, संधान परीक्षा एवं महत्वपूर्ण कारकों का वर्णन करें।
  4. पथ्य कल्पना का महत्व बताते हुए पेय कल्पना (मण्ड, पेया, विलेपी, यवागू, ओदन) का सविस्तार वर्णन करें।
  5. Define and describe Avaleha Kalpana in detail covering method of preparation, Paka Pariksha, dose, shelf life with examples like Vasavaleha.
  6. Explain the aims of Sneha Kalpana. Describe the general method of preparation including Murchhana, Sneha Paka Pariksha (Trividha Paka) and concept of Avartana with examples like Phala Ghrita.
  7. What is Sandhana Kalpana? Differentiate between Asava and Arishta. Describe the general method of preparation, Sandhana Pariksha, and important factors affecting fermentation with examples like Draksharista.
  8. Discuss the importance of Pathya Kalpana. Describe Peya Kalpana (Manda, Peya, Vilepi, Yavagu, Odana) in detail.

लघु उत्तरीय प्रश्न (5 Marks Questions)

  • अवलेह की परिभाषा एवं पाक सिद्धि लक्षण।
  • स्नेह कल्पना का उद्देश्य एवं प्रकार।
  • घृत मूर्छन एवं तैल मूर्छन।
  • स्नेह पाक के त्रिविध पाक (मृदु, मध्यम, खर)।
  • स्नेह कल्पना में आवर्तन।
  • आसव एवं अरिष्ट में अंतर।
  • संधान कल्पना में धातकी पुष्प का महत्व।
  • संधान परीक्षा (जलती शलाका, चूना जल)।
  • पथ्य की परिभाषा एवं महत्व।
  • पेय कल्पना का वर्गीकरण (मण्ड से ओदन तक)।
  • यूष कल्पना पर टिप्पणी लिखें।
  • क्षीर पाक कल्पना।
  • चूर्ण कल्पना।
  • अर्क कल्पना।

अति लघु उत्तरीय प्रश्न (2 Marks Questions)

  • अवलेह का पर्याय? (लेह/पाक)
  • अवलेह पाक परीक्षा का एक लक्षण? (तन्तुमत्ता/अप्सु मज्जनम्)
  • स्नेह पाक से पूर्व क्या करना आवश्यक है? (मूर्छन)
  • पानार्थ श्रेष्ठ स्नेह पाक? (मध्यम)
  • नस्यार्थ श्रेष्ठ स्नेह पाक? (मृदु)
  • क्षीरबला तैल 101 आवर्ती - यहाँ आवर्तन का क्या अर्थ है? (पाक प्रक्रिया को 101 बार दोहराना)
  • आसव बिना उबाले बनता है या उबालकर? (बिना उबाले)
  • अरिष्ट किससे बनता है? (क्वाथ से)
  • संधान में प्रयुक्त मुख्य किण्व द्रव्य? (धातकी पुष्प)
  • आसव-अरिष्ट की सवीर्यता अवधि? (चिर स्थायी)
  • पथ्य का अर्थ? (स्रोतसों/स्वास्थ्य के लिए हितकर)
  • सबसे लघु पेय कल्पना? (मण्ड)
  • सबसे गुरु पेय कल्पना? (ओदन)
  • मूंग दाल के सूप को क्या कहते हैं? (मुद्ग यूष)
  • चावल, दाल, घी, मसालों से बनी कल्पना? (कृशरा)

About the Author: Sparsh Varshney

Sparsh Varshney is a BAMS (Bachelor of Ayurvedic Medicine and Surgery) student and the founder of AmidhaAyurveda.com. His mission is to share the deep and timeless wisdom of Ayurveda in an accessible and practical way, empowering people to reclaim their health naturally.

Disclaimer: This article is for educational purposes only, intended for BAMS students. This information is based on Ayurvedic Samhitas (like Charaka, Sushruta, Vagbhata) and texts like Sharangdhara Samhita and Bhavaprakash. Specific procedures, ratios, ingredients, and shelf-life may vary based on different texts, traditions, and specific formulations. For practical application, manufacturing, and treatment, always consult a qualified Ayurvedic practitioner and refer to authentic sources under expert guidance. Market survey and research updates are indicative and subject to change.

Aushadhi Prayoga Vigyana

अध्याय १: औषध प्रयोग विज्ञान - भैषज्यकल्पना नोट्स | BAMS Notes

अध्याय १: औषध प्रयोग विज्ञान (Aushadhi Prayoga Vigyana)

भैषज्यकल्पना का द्वितीय प्रश्नपत्र 'औषध प्रयोग विज्ञान' पर केंद्रित है, जिसे आधुनिक शब्दावली में 'फार्माको-थेराप्यूटिक्स' (Pharmaco-therapeutics) कहा जा सकता है। यह वह विज्ञान है जो द्रव्यगुण (औषध को जानना) और चिकित्सा (रोग का उपचार) के बीच सेतु का काम करता है। इसमें केवल यह नहीं पढ़ा जाता कि 'औषध क्या है', बल्कि यह पढ़ा जाता है कि 'औषध का प्रयोग कैसे करें'।

अध्याय सार (Chapter in Brief)

  • औषध प्रयोग विज्ञान: वह विज्ञान जो रोग और रोगी की अवस्था के अनुसार औषध के सम्यक् (उचित) प्रयोग (मात्रा, काल, अनुपान) का ज्ञान कराता है।
  • व्युत्पत्ति: औषध (Oshadha - जो वीर्य धारण करे) + प्रयोग (Prayoga - उपयोग) + विज्ञान (Vigyana - विशिष्ट ज्ञान)।
  • क्षेत्र (Scope): द्रव्यगुण और चिकित्सा के बीच का व्यावहारिक (Practical) ज्ञान। इसमें औषध की मात्रा, कल्पना, सेवन काल, और अनुपान का निर्धारण शामिल है।
  • प्रशस्त भेषज लक्षण: एक आदर्श औषध के गुण, जैसा कि आचार्य चरक ने बताया है: बहुकल्प, बहुगुण, सम्पन्न, और योग्य।

औषध प्रयोग विज्ञान: परिचय, व्युत्पत्ति एवं क्षेत्र

1. व्युत्पत्ति (Etymology)

यह विषय तीन शब्दों से मिलकर बना है:

  1. औषध (Aushadha):

    ओषं धयति इति औषधम्।
    (अथवा) ओषधीभ्यो जातम् इति औषधम्।

    अर्थात्: 'ओष' का अर्थ है तेज, ऊर्जा, या वीर्य; 'धि' का अर्थ है धारण करना। जो द्रव्य अपने भीतर रोग को नष्ट करने की ऊर्जा या वीर्य को धारण करता है, वह 'औषध' है। अथवा, जो 'ओषधि' (वनस्पतियों) से प्राप्त हो, वह औषध है।

  2. प्रयोग (Prayoga): इसका अर्थ है 'व्यावहारिक उपयोग' (Practical Application) या 'प्रशासन' (Administration)।
  3. विज्ञान (Vigyana): किसी विषय का विशिष्ट, व्यवस्थित और तार्किक ज्ञान (Specific and systematic knowledge)।

निष्कर्ष: इस प्रकार, **औषध प्रयोग विज्ञान** का अर्थ है "औषधियों के सम्यक् (उचित) एवं तार्किक प्रयोग का विशिष्ट ज्ञान"।

2. परिचय एवं परिभाषा (Introduction & Definition)

द्रव्यगुण विज्ञान हमें द्रव्य के रस-पंचक (रस, गुण, वीर्य, विपाक, प्रभाव) का ज्ञान कराता है। कायचिकित्सा हमें रोग के निदान-पंचक (निदान, पूर्वरूप, रूप, उपशय, संप्राप्ति) का ज्ञान कराती है।

औषध प्रयोग विज्ञान (Pharmacotherapeutics) वह विज्ञान है जो इन दोनों ज्ञानों को जोड़ता है। यह सिखाता है कि किसी विशिष्ट रोग की विशिष्ट अवस्था में, विशिष्ट रोगी पर, किस द्रव्य को, किस कल्पना (Formulation) में, किस मात्रा (Dose) में, किस अनुपान (Vehicle) के साथ, और किस काल (Time) में देना चाहिए ताकि 'सम्यक् योग' (Ideal therapeutic effect) प्राप्त हो सके।

3. औषध प्रयोग विज्ञान का क्षेत्र (Scope of Aushadhi Prayoga Vigyana)

इस विज्ञान का क्षेत्र अत्यंत व्यापक है और चिकित्सा की सफलता इसी पर निर्भर करती है। इसके अंतर्गत निम्नलिखित विषयों का अध्ययन किया जाता है:

  • कल्पना का चयन (Choice of Formulation): रोग और रोगी के बल के अनुसार यह निर्णय लेना कि चूर्ण, वटी, घृत, आसव या भस्म में से कौन सी कल्पना सबसे उपयुक्त होगी। (जैसे - अग्निमांद्य में चूर्ण या अरिष्ट, जबकि क्षीण रोगी के लिए घृत)।
  • मात्रा निर्धारण (Dosage - Posology): अध्याय ३ में वर्णित सिद्धांतों (अग्नि, बल, वय, कोष्ठ) के आधार पर औषध की सही मात्रा निर्धारित करना।
  • अनुपान एवं सहपान का चयन (Choice of Adjuvant): औषध के प्रभाव को बढ़ाने (Synergistic effect), अवशोषण (Absorption) को तीव्र करने, या दुष्प्रभावों (Side-effects) को कम करने के लिए सही अनुपान (जैसे - मधु, घृत, उष्ण जल) का चयन करना।
  • औषध सेवन काल का निर्धारण (Timing of Administration): अध्याय ३ में वर्णित १० सेवन कालों (अभक्त, प्राग्भक्त आदि) में से दोष और रोग की स्थिति के अनुसार सही काल का चयन करना।
  • द्रव्यों का एकत्रीकरण (Drug Combination): यह समझना कि किन द्रव्यों को एक साथ मिलाकर 'यौगिक' (Compound formulation) बनाने से उनका प्रभाव बढ़ता है (यौगिक द्रव्य सिद्धांत)।
  • औषध-आहार विरुद्धता (Drug-Food Interaction): चिकित्सा के दौरान रोगी को क्या पथ्य (Compatible diet) और क्या अपथ्य (Incompatible diet) है, इसका निर्देश देना।

संक्षेप में, इसका क्षेत्र 'द्रव्य' को 'भेषज' (Medicine) में परिवर्तित करने की पूर्ण तार्किक प्रक्रिया है।

प्रशस्त भेषज लक्षण (Characteristics of an Ideal Drug)

एक चिकित्सक को औषध का प्रयोग करने से पहले यह सुनिश्चित करना चाहिए कि वह औषध 'प्रशस्त' (Ideal / Excellent) है। यदि औषध स्वयं उत्तम नहीं होगी, तो उसका प्रयोग विफल हो जायेगा।

आचार्य चरक (सूत्रस्थान ९, चतुष्पाद अध्याय) ने श्रेष्ठ या प्रशस्त भेषज के चार लक्षण बताये हैं:

बहुकल्पं बहुगुणं सम्पन्नं योग्यमौरसम्।
औषधं प्रशस्तमिति...॥

(चरक संहिता, सूत्रस्थान ९/६)

एक प्रशस्त (आदर्श) औषध में निम्नलिखित चार गुण होने चाहिए:

1. बहुकल्पं (Bahukalpam - Pharmaceutically Versatile)

  • अर्थ: "जिसकी बहुत सी कल्पनाएं (Formulations) बनाई जा सकें।"
  • व्याख्या: एक आदर्श द्रव्य वह है जिसे रोगी की आवश्यकता और रोग की अवस्था के अनुसार विभिन्न रूपों (स्वरस, कल्क, चूर्ण, क्वाथ, वटी, घृत, आसव आदि) में परिवर्तित किया जा सके।
  • उदाहरण: **हरीतकी (Haritaki)**। हरीतकी का प्रयोग चूर्ण, वटी (पथ्यादि वटी), अवलेह (अगस्त्य हरीतकी), और अरिष्ट (अभयारिष्ट) के रूप में किया जा सकता है। यह गुण द्रव्य को 'Versatile' बनाता है।

2. बहुगुणं (Bahugunam - Polyvalent / Multi-faceted)

  • अर्थ: "जो बहुत से गुणों से युक्त हो।"
  • व्याख्या: 'गुण' से तात्पर्य यहाँ द्रव्य के रस-पंचक (विशेषकर गुण और कर्म) से है। एक आदर्श द्रव्य वह है जो एक ही समय में अनेक गुणों (जैसे - लघु, रूक्ष) से युक्त हो और अनेक कर्म (जैसे - दीपन, पाचन, लेखन) करता हो।
  • उदाहरण: **गुग्गुलु (Guggulu)**। यह तिक्त-कटु-कषाय रस, लघु-रूक्ष गुण, उष्ण वीर्य और कटु विपाक वाला है। इन गुणों के कारण यह त्रिदोषहर (विशेषतः वात-कफ शामक), मेदोहर, लेखन, शोथहर (Anti-inflammatory), और वेदनास्थापन (Analgesic) जैसे अनेक कर्म करता है।

3. सम्पन्नं (Sampannam - Potent / Well-Endowed)

  • अर्थ: "जो सम्पन्न हो" (Rich / Endowed)।
  • व्याख्या: 'सम्पन्न' होने का अर्थ है कि द्रव्य अपने सभी प्राकृतिक गुणों (रस, वीर्य, विपाक आदि) से परिपूर्ण हो। यह तभी संभव है जब:
    1. द्रव्य को 'प्रशस्त भूमि' (Ideal soil/habitat) से प्राप्त किया गया हो।
    2. उसे 'उचित काल' (सही ऋतु और समय) में संग्रह किया गया हो।
    3. वह 'अविकृत' (Unadulterated), 'अजीर्ण' (Not old), और वीर्यवान हो।
  • उदाहरण: शरद ऋतु में संगृहीत, पुष्ट, और कीड़ों से रहित 'आमलकी' (Amla) ही 'सम्पन्न' कहलाएगी।

4. योग्यं (Yogyam - Appropriate / Suitable)

  • अर्थ: "जो योग्य हो।"
  • व्याख्या: यह औषध का सबसे महत्वपूर्ण गुण है। द्रव्य कितना भी 'बहुकल्प', 'बहुगुण', और 'सम्पन्न' क्यों न हो, यदि वह उस विशिष्ट रोग (Vyadhi) और रोगी (Rogi) के लिए 'योग्य' (Suitable) नहीं है, तो वह व्यर्थ है।
  • उदाहरण: 'मरिच' (Black Pepper) एक उत्तम दीपन-पाचन द्रव्य (बहुगुण, सम्पन्न) है, लेकिन यदि उसे 'पित्त प्रकृति' के रोगी को 'अम्लपित्त' (Acidity) रोग में दिया जाये, तो वह 'अयोग्य' (Unsuitable) है और रोग को बढ़ा देगी।
  • 'योग्य' होने का अर्थ है कि औषध रोग की संप्राप्ति को भंग (Disease pathogenesis) करने में सक्षम हो और रोगी की प्रकृति के अनुकूल (Compatible) हो।

'औरसम्' (Aurasam)

कुछ टीकाकार श्लोक में 'योग्यमौरसम्' को 'योग्यम्' और 'औरसम्' दो अलग गुण मानते हैं।

  • औरसम् (Aurasam): इसका एक अर्थ 'प्रशस्त देशे जातं' अर्थात् 'अपने प्राकृतिक और आदर्श स्थान पर उत्पन्न' (Native to its ideal habitat) लिया जाता है। जो द्रव्य अपने प्राकृतिक स्थान पर उगता है, वह सर्वाधिक वीर्यवान होता है। इस व्याख्या के अनुसार, 'औरसम्' को 'सम्पन्नं' गुण का ही एक हिस्सा माना जा सकता है।

परीक्षा-उपयोगी प्रश्न (Exam-Oriented Questions)

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न (10 Marks Questions)

  1. 'औषध प्रयोग विज्ञान' की व्युत्पत्ति, परिभाषा और क्षेत्र (Scope) का सविस्तार वर्णन करें।
  2. 'प्रशस्त भेषज' के लक्षणों का श्लोक सहित सविस्तार वर्णन करें। 'बहुकल्पं' और 'योग्यं' से आप क्या समझते हैं?

लघु उत्तरीय प्रश्न (5 Marks Questions)

  • प्रशस्त भेषज के चार लक्षण श्लोक सहित लिखें।
  • 'बहुगुणं' और 'सम्पन्नं' लक्षण को सोदाहरण स्पष्ट करें।
  • औषध प्रयोग विज्ञान का क्षेत्र (Scope) क्या है?
  • औषध शब्द की व्युत्पत्ति और परिभाषा लिखें।

अति लघु उत्तरीय प्रश्न (2 Marks Questions)

  • प्रशस्त भेषज के चार लक्षण क्या हैं? (नाम लिखें)
  • चरक (च.सू. ९/६) का प्रशस्त भेषज का श्लोक लिखें।
  • 'बहुकल्पं' का क्या अर्थ है?
  • 'योग्यं' से आप क्या समझते हैं?
  • 'सम्पन्नं' भेषज का क्या अर्थ है?

About the Author: Sparsh Varshney

Sparsh Varshney is a BAMS (Bachelor of Ayurvedic Medicine and Surgery) student and the founder of AmidhaAyurveda.com. His mission is to share the deep and timeless wisdom of Ayurveda in an accessible and practical way, empowering people to reclaim their health naturally.

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